बेगूसराय। रिमझिम फुहारों के साथ सावन का महीना आते ही मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम को अपना पाहुन (दामाद) बनाने वाले मिथिलांचल की गलियां कुछ अधिक ही झूमती है और झूमने का कारण भी कोई एक नहीं कई है। सावन प्रवेश करने के साथ ही मिथिला के घर-घर में भोले शंकर की पूजा शुरू हो जाती है। सावन के पांचवें दिन मौना पंचमी के साथ नव विवाहिताओं का सबसे बड़ा त्यौहार मधुश्रावणी शुरू हो जाता है। इस वर्ष 18 जुलाई से मधुश्रावणी का पर्व शुरू हो रहा है जिसका समापन 31 जुलाई को विशेष पूजा के साथ होगा। मधुश्रावणी को लेकर हर नव विवाहित महिलाओं के मायके में जोरदार तैयारी चल रही है। अनेक सांस्कृतिक विशिष्टताओं को अपने आंचल में संजोए मिथिलांचल का घर, आंगन, बाग, बगीचा, खेत, खलिहान और मंदिर परिसर इन दिनों पायल की झंकार तथा मैथिली गीतों से मनमोहक हो उठा है।
मौनापंचमी के दिन से शुरू सुहाग की अमरता के लिए प्रार्थना का विशिष्ट पर्व मधुश्रावणी को लेकर सोलहो श्रृंगार से सजी नवविवाहिता जब सखियों के संग सज-धज कर फूल लोढ़ने के लिए निकलती हैं तो घर-आंगन, बाग-बगीचा, खेत-खलिहान एवं मंदिर परिसर इनके पायल की झंकार और मैथिली गीतों से मनमोहक हो जाता है। उनका रूप, श्रृंगार, गीत और सहेलियों में प्रेम देखते ही लगता है कि शायद इंद्रलोक यहीं पर है। मधुश्रावणी पूजन नव विवाहिताओं के लिए किसी तपस्या से कम नहीं है। इस पर्व का समापन 31 जुलाई को अंतिम पूजा के बाद टेमी दागने के साथ होगा।
इसमें प्रत्येक दिन वासी फूल और पत्ता से भगवान भोले शंकर, माता पार्वती के अलावे मैना विषहरी, नाग नागिन, गौड़ी की विशेष पूजा होती है। इसके लिए तरह-तरह के पत्ते भी तोड़े जाते हैं, सोमवार से शुरु होने वाले पूजा को लेकर नाग-नागिन और उनके पांच बच्चे मिट्टी से बनाए गए हैं। 14 दिनों तक चलने वाला यह पर्व एक तरह से नव दंपतियों का मधुमास है। प्रथा है कि इन दिनों नव विवाहिता ससुराल के दिये कपड़े-गहने ही पहनती है और भोजन भी वहीं से भेजे अन्न का करती है। नव विवाहिता विवाह के पहले साल मायके में ही रहती है। इसलिए पूजा शुरू होने के एक दिन पूर्व नव विवाहिता के ससुराल से सारी सामग्री भेज दी जाती है।
पहले और अंतिम दिन की पूजा विस्तार से होती है, जमीन पर सुंदर तरीके से अल्पना बना कर ढे़र सारे फूल-पत्तों से पूजा की जाती है। पूजा के बाद शंकर-पार्वती के चरित्र के माध्यम से पति-पत्नी के बीच होने वाली नोक-झोंक, रूठना-मनाना, प्यार-मनुहार जैसे कई चरित्रों के जन्म, अभिशाप और अंत इत्यादि की कथा सुनाई जाती है। जिससे कि नव दंपती इन परिस्थितियों में धैर्य रखकर सुखमय जीवन बिताएं, क्योंकि यह सब दांपत्य जीवन के स्वाभाविक लक्षण हैं। पूजा के अंत में नव विवाहिता सभी सुहागिन को अपने हाथों से खीर का प्रसाद एवं पिसी हुई मेंहदी बांटती हैं। कभी 13 तो कभी 14 दिनों तक यह क्रम चलता रहता है फिर अंतिम दिन बृहद पूजा होती है, जिसमें पूजा के क्रम में लड़की को सहनशील बनाने की कामना के साथ दोनों पैर एवं घुटनों को जलती हुई दीये की टेमी (दीप की जलती बत्ती) से दागा जाता है।
ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र गढ़पुरा के संस्थापक पंडित आशुतोष झा बताते हैं कि मधुश्रावणी व्रत और पूजन का मिथिला तथा खासकर मैथिल समाज में काफी महत्व है। यह व्रत नव विवाहिता अपने अमर सुहाग के लिए करती है, माता पार्वती ने भी यह व्रत-पूजन किया था। अनेक खूबसूरती को अपने आगोश में समेटे मिथिलांचल के इस त्योहार में प्रकृति की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। मिट्टी और हरियाली से जुड़े इस पूजा के हर कदम के पीछे पति की लंबी आयु की कामना होती है।