बेगूसराय। रंग-उमंग और भाईचारगी का पर्व होली पर ग्रामीण परंपरा पर आधुनिकता का रंग चढ़ गया है। पहले के समय में गांवों में तो एक महीने पहले से ही होली पर्व का असर दिखने लगता था। लोक गायन मंडली के सदस्य गीतों से समा बांधते रहते थे। हारमोनियम, ढ़ोलक, झाल मंजीरे की मिठास और लोक गायकों के अलाप में लोग सुध-बुध खोकर शामिल हो जाते थे। होली में जोगीरा का अपना अलग मजा था, व्यंग्य को परोसने का बेजोड़ माध्यम जोगीरा का अब वह स्वरुप नहीं रहा और ना ही वह लोक गायन की परंपरा, ना गायन मंडली। फिल्मी गीतों के पैरोडी में गाए जाने वाले जोगीरा में ना तो अपनी मिट्टी की खुशबु है और ना ही अपनापन। कुछ जगहों पर लोक गायन की परंपरा को बुजुर्गों ने बचा कर रखा है। लेकिन होली के द्विअर्थी गीत के शोर में ढ़ोलक, झाल और मजीरा पर होने वाला सारा..रा..रा..रा.. गुम हो गया है।
”मिथिला में राम खेलें होली मिथिला में, किनका हाथ अबीर पिचकारी किनका हाथ रंगझोली मिथिला में” जैसे गीत अब बीते दिनों की बात हो गई है। आज से दस साल पहले तक का वह समय था, जब बसंत पंचमी के साथ ही होली के उमंग में लोग मशगूल हो जाते थे। शाम होते ही गांव के लोग एक जगह एकत्रित होकर ढ़ोलक की थाप और मंजीरे की झंकार पर होली के गीत एवं जोगीरा में मशगूल हो जाते थे। होली के दिन लोग विद्वेष भुलाकर एक जगह एकत्रित होने के बाद गांव के हर दरवाजे पर जाकर होली के गीत एवं जोगीरा गाते थे। इस दौरान आपस में होने वाले हंसी-ठिठोली एवं मजाक से तन-मन सराबोर हो जाता था।
15-20 दिन पहले से हो रहे शोर के बाद होली के दिन गांव-मुहल्ला के बुजुर्ग एवं युवक गले में ढ़ोलक और हारमोनियम लटकाकर झाल के साथ गांव की हर दरवाजे पर जाकर जीवंत लोकगीतों से होली की मिठास घोलते थे। अपने मन की भावना को जोगीरा के माध्यम से व्यक्त करते थे। घर पर आए मेहमान को बाहर बुलाकर उनके साथ रंग, उमंग और ठिठोली से होली मनाया जाता था। दरवाजे से निकलते समय ”सदा आनंदा रहे यही द्वारे मोहन खेले होली हो” का आशीर्वाद दिया जाता था। बुजुर्ग बताते हैं कि पूरी दुनिया को अनेकता में एकता का संदेश देने वाला हमारा देश में त्योहार, व्रत एवं परंपराएं यहां के जीवंत सभ्यता और संस्कृति का आईना है।
देश की अनेकता में एकता प्रदर्शित होने के पीछे हमारी समृद्ध परंपराओं और पर्वों का योगदान है, गांवों में इन परंपराओं को लोग भली भांति निभाते थे। फागुन के गीत राग, मल्हार, फगुआ, चैता, झूमर, नारदी एवं बारहमासा के माध्यम से लोक कला और संस्कृति की छाप देखने को मिलती थी। गांवों में एक साथ फगुआ गीतों के बीच आपसी प्रेम तथा सौहार्द रहता था। गांवों के झगड़े का निपटारा आपसी बातचीत से ही हो जाता था। लेकिन अब गांवों में ढ़ोलक-झाल की आवाज नहीं सुनाई देती है, ग्रामीण परंपरा पर आधुनिकता का रंग चढ़ गया है, तो सब कुछ समाप्त हो गया।
होली के फगुआ गीतों का स्थान भोजपुरी और अंगिका के अश्लील गीतों ने ले लिया है। बड़े-बड़े साउंड सिस्टम और मोबाइल ने लोगों का सिर्फ सुख-चैन ही नहीं छीना है, बल्कि लोक कला को विलुप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, तो सद्भाव भी गांव से समाप्त हो गया। हुरियारों की टोली गांव से गायब हो गई, पुराने हुरियारों को गांव के फागुन में आया बदलाव मन को कचोट रहा है। रंगों से सराबोर कर देने वाली होली में मिठास घोलने वाली जोगीरा की बोली खामोश है। कुछ गांवों में किसी तरह इस परंपरा को बनाए रखने की औपचारिकता की जा रही है, लेकिन वह भी दो-चार वर्षों में विलुप्त हो जाएगा। बुजुर्ग रामेश्वर महतो, भोला महतो, विपिन सिंह आदि कहते हैं कि हमारे समय में होली सिर्फ रंग और उमंग नहीं, सामाजिक सद्भाव और लोक गीतों के माध्यम से लोक कला का जीवंत उदाहरण था। पहले से हो रही झंकार के बीच होली के दिन जोगीरा की धुन पर जब जानी (नर्तकी बने पुरुष) के पैर थिरकते थे तो पूरा गांव-समाज झूम उठता था। भंग की तरंग में लोग झूमते रहते थे, बड़े-बुजुर्गों से घर-घर जाकर आशीर्वाद लिया जाता था।
कुसुम के फूल से घर में ही लाल और पीले रंग बनाए जाते थे, यह पक्का प्राकृतिक रंग प्यार का प्रतीक होता था। लेकिन अब बज रहे होली के गीतों ने महिलाओं का तो घर से निकलना ही दूभर कर दिया है। मोबाइल और शराब में उलझे युवाओं को अपनी परंपराओं से कोई मतलब नहीं रह गया है। बाजार में बिक रहे रासायनिक रंग तन-मन और धन के लिए खतरनाक हो गया है। होली के बहाने लोग अश्लीलता की हद पार करने लगे हैं, भंग के तरंग में मस्त होकर ढ़ोलक की थाप और झाल पर फगुआ गाकर झूमने की जगह, लोग अब द्विअर्थी गीत बजाकर शराब जैसे जानलेवा नशे में हुड़दंग मचाने लगे हैं।