बेगूसराय। आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की आष्टमी में मनाया जाने वाला जिउतिया व्रत 28 सितंबर को नहाए खाए के साथ शुरू होगा। इसके बाद 29 सितंबर की अष्टमी तिथि को महिलाएं निर्जला उपवास रखेगी। दूसरे दिन व्रत का पारण होगा। यह व्रत माताएं अपने संतान के लंबे आयु, स्वास्थ्य, सुख समृद्धि और संतान प्राप्ति की कामना के साथ करती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार इस व्रत से संतान के सभी कष्ट दूर होते है। इसे सबसे कठिन व्रतो में से एक माना जाता है।
मान्यता है कि इस व्रत के फलस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण संतान की रक्षा करते है। जिउतिया व्रत शुरू करने से पहले नहाए खान के दिन व्रती महिलाएं गेंहू के आटे की जगह मडुआ की रोटियां और नोनी का साग खाती है। नोनी का साग कैल्सियम और आयरन से भरपूर होती है, जिसे व्रती के शरीर में पोषक तत्वो की कमी नहीं होती है। यूं तो सनातन धर्म में पूजा पाठ के दौरान मांसाहार का सेवन वर्जित है, पर बिहार के कई जगहो में मछली खाने की परंपरा है। इसके बाद शुभता का प्रतीक पान खाकर महिलाएं निर्जला व्रत शुरू करती है।
जिउतिया व्रत की कथा में चील और सियार का वर्णन है। कथा के अनुसार एक विशाल पाकड़ के पेड़ पर एक चील बास करती थी। उसी पेड़ के नीचे एक सियारिन का बसेरा था। दोनो पक्की सहेलियां थी। दोनो ने महिलाओं को देखकर जिउतिया व्रत करने का संकल्प लिया। व्रत के दौरान शहर के एक बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गई। उसके दाह संस्कार में सियारिन को भूख लगी और उसका व्रत टूट गया। जबकि चील ने संयमपूर्वक व्रत किया।
अगले जन्म में दोनो ने भास्कर नामक ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म दिया। जिसमें चील बडी बहन और सियार छोटी बहन के रूप में जन्म लिया। बड़ी बहन शीलवती का विवाह बुद्धिसेन तथा छोटी कुपुरावती की शादी नगर क राजा मलायकेतु से हुई। भगवान जिमूतवाहन के आर्शीवाद से सात पुत्र हुए जो बड़े होकर राजा के दरबार में काम करने लगे। इससे कपुरावती इर्ष्या से भर उठी। तब उसने राजा से कहकर कपुरावती ने शीलवती के सातो पुत्र का सर कटवाकर उसे सात बर्तन में रखवाया और उसे लाल कपड़े से ढक कर शीलवती के पास भिजवा दिया। पर भगवान जिमूतवाहन ने सातो भाईयो के सिर उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया, इससे उसमें जान आ गई। तभी से जिमूतवाहन का व्रत करने का विधान चल रहा है।